“मैं हूं रूमी दरवाजा… ना की तुम्हारी पार्किंग लॉट ”लखनऊ वालों” !”

शालिनी तिवारी
शालिनी तिवारी

मैं वक्त हूं, नवाबी दौर की पहचान। मैं खड़ा हूं उसी जगह पर जहां से लखनऊ की तहज़ीब की पहली झलक मिलती है।
मैं हूं रूमी दरवाजा। जिसने नवाबों को, अंग्रेजों को, आज़ादी के मतवालों को और अब तुम सबको भी देखा है। लेकिन आज — तुम मुझे देख नहीं रहे हो। तुम मेरी मेहराबों में इतिहास नहीं, बस अपनी SUV और बाइक की जगह ढूंढते हो।

“इतिहास की गोद में अब गाड़ियां पल रही हैं”

कभी जहां इश्क-ओ-इंकलाब की बातें होती थीं, आज वहां “गाड़ी यहां लगाओ तो साया मिलेगा” जैसी बातें होती हैं।
मैं सोचता हूं — क्या सच में यही है मेरी तक़दीर?
नक्शे में “टूरिस्ट स्पॉट” लिखा हूं, पर ज़मीन पर पब्लिक पार्किंग स्पॉट बना दिया गया हूं।

लखनऊ वालों से मेरी शिकायत है…

तुमने मुझे दुनिया को पहचान देने वाला लखनऊ का आइकन कहा था, लेकिन अब तुम मुझे देखकर सिर्फ ये पूछते हो- “भाई! पार्किंग यहीं है ना?” “कोई कहे ये दरवाजा है इतिहास का… कोई कहे ये रुकावट है ट्रैफिक का!”

एक दिन तस्वीर ही रह जाऊंगा…

एक दिन मेरी दीवारें झुक जाएंगी, मेरी ऊँचाई थक जाएगी, और तुम मुझे सिर्फ इंस्टाग्राम पर याद करोगे। “लो बेटा! यही था रूमी दरवाजा, कभी नवाबों का फख्र हुआ करता था!”

अब तो बस Google Maps में ‘Nearby Parking’ के नाम पर बचा हूं।

अगर दिल नहीं पसीजा, तो समझ जाऊंगा…

अगर मेरी ये बातें भी तुम्हारे दिल को नहीं छू पाईं, तो मैं मान लूंगा — लखनऊ अब मुझे भूल चुका है। तब मत कहना कि मैंने कुछ नहीं कहा था… मैं भी हुस्न की तरह खामोश हो जाऊंगातस्वीरों में खूबसूरत, हकीकत में ग़ायब। 

मैंने देखे हैं नवाबों के काफ़िले यूँ चलते हुए,
अब मेरे साए में बाइकें हैं बेसब्र खड़ी।

कभी लखनऊ की शान था, अब बस एक मोड़ हूँ,

इतिहास की किताब था मैं, अब रोड हूँ।

वो जो तस्वीरें लेते हैं मेरे साथ मुस्कुरा कर,
कभी पलट के नहीं देखते कि मैं टूटा हूं अंदर से।

बेख़बर हैं लोग मेरी दरारों से,
वक़्त ने जो लिखा, वो मिटा दिया पार्किंग के इशारों से।

मैंने गुलाबों को महकते देखा है इस शहर में,
अब धुएं से घुटता हूं, फिर भी शिकायत नहीं करता।

कभी सर झुकते थे मेरे सामने अदब से,
अब हॉर्न बजा के गुज़रते हैं लोग ग़ज़ब से।

मैं दरवाज़ा हूं लखनऊ का, मगर खुलता नहीं,
अब तो पहचान भी मेरी, बस लोकेशन सी लगती है।

वो जो कहते थे ‘रूमी दरवाज़ा हमारी शान है’,
अब उन्हीं की कारों से मेरी दीवार घायल है।

मैं इंतज़ार करता हूं किसी उस पल का,
जब कोई मुझे देखने नहीं, समझने आए।

इतिहास हूँ मैं, म्यूज़ियम नहीं,
मुझे सजाया नहीं, संभाला जाना चाहिए था।

क्या आप भी कभी रूमी दरवाजे पर गाड़ी पार्क कर चुके हैं?
अब दोबारा जाइए… पर इस बार इतिहास को देखने की नीयत से। वरना आने वाली पीढ़ियां सिर्फ ये कहेंगी — “ये वही दरवाजा है जहां अब Uber रुकती है।”

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